बीते लम्हे
धुआं धुआं सा रह गया,
ये वक़्त, इतना सब सेह गया,
पीछे मुड़ा आज तो ख़ामोशी ही ख़ामोशी नज़र आती है,
बीते लम्हो के छाओं से चेहरे पर एक दबी सी मुस्कान आ जाती है,
रात के अँधेरे में आज लगता है डर,
निकला तो हूँ पर क्या शाम को पोहोंच पाउँगा घर??
आज फिर बेख़ौफ़ होने को दिल चाहता है,
धुआं ये जाते नहीं अब ज़ेहन में बस यही ख़याल आता है,
कभी तो बादल बरसेंगें,
कब तक उम्मीद लगाए हम सब तरसेंगे,
आज एक दफा फिर ये दिल कहता है,
बेपरवाह होके जीना अब भी रहता है|
लेखक
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