जब कभी मैं ढलते सूरज को देखता हूं तो मुझे दिन भर के थके हारे घर लौटते मनुष्य का ध्यान आता है | कैसे वह हर रोज परिवार के भरण पोषण खातिर हर सुबह शांत मन से घर से निकलता है। ऑफिस में बॉस की डांट सुनता है। और पूरे दिन अंदर ही अंदर जलते रहता है। फिर उन्हीं बातों को मन में बिठाए मन हीं मन कुंठित होकर घर लौटता है।
ऑफिस से घर लौटते वक्त मन में हजारों बुरे ख्यालआते रहते हैं। वह नदी को देखकर सोचता है समाहित हो जाऊं इसकी गहराई में, ख़तम कर दूं जिंदगी की बाधाएं, तभी आता है खयाल घर पर इंतजार कर रहे बीवी और बच्चों का, रुक जाते हैं उसके कदम नदी की गहराई में परछाई को डूबते देखकर वह संभालता है अपने आप को, और फिर खो जाता है अपने गमों के सागर में हर रोज घटित होती है यह घटना उसके साथ, वह रोज़ डुबोता है अपने परछाईं को अस्त होते सूरज की परछाईं की तरह।
लेखक
अंजान
(कृष्ण कांत त्रिपाठी)
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